प्रासंगिक (७ मार्च, १९६७)

 

मृत्युके प्रसंगमें

 

  मेरे पास बड़े विद्यार्थियोंसे (छोटे बच्चोंसे नहीं, बडोंसे) ''मृत्यु'' के बारेमें कुच प्रश्न आये है, मृत्युकी अवस्थाए, इस समय इतनी दुर्घटनाएं क्यों हो रही है आदि । मैं दो व्यक्तियोंको उत्तर दे चुकी हूं । स्वभावत: उत्तर मानसिक स्तरके था, लेकिन उसमें परे जानेका प्रयास था ।

 

   इस प्रकारके मानसिक तर्कके लिये, हां, यह जरूरत होती है कि चीजों- का तर्कके अनुसार एकसे दूसरेकी ओर निगमन हों; इसलिये ऐसे प्रश्न किये जाते है... जो असंभव होते है । '

 

क्या अंतरात्मा मृत्युका समय और तरीका नहीं चुनती? जब मानव जातिपर बडी-बडी विपदाएं आती हैं, बंबारी, बाढ़, भूकंप आदि तो क्या सब-की-सब सत्ताएं एक ही समय मृत्यु चुनती हैं?

 

  मनुप्योंकी बहुत बड़ी संख्यकि सामूहिक नियति होती है । उनके बारे- में कोई प्रश्न नहीं उठता ।

 

  जिसमें व्यक्तित्व-प्राप्त चैत्य पुरुष है वह, यदि उसकी अंतरात्मा शह चाहे, सामूहिक विनाशमेसे भी बच सकता है ।

 

  मृत्युके बाद अंतरात्मा अपने मन और प्राण और भौतिक सत्तासे जुदा हो जाती है । तब वह अपने अस्तित्वके बारेमें सचेतन कैसे रहती है?

 

 अंतरात्मा परम प्रभुकी एक चिनगारी है; मुझे नहीं लगता कि प्रभुको अपने अस्तित्वके बारेमें सचेतन होनेके लिये. शरीरकी जरूरत है ।

 

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  यह कोई बहुत नयी चीज नहीं है, परंतु यह चेतनाका विस्तार है, और अभी हालमें ये सब प्रश्न वातावरणमें आये और सबसे पहले ऐसा लगा कि मनुष्य मृत्युके बारेमें कुछ नहीं जानता -- यह नहीं जानता कि यह क्या है, वह यह नहीं जानता कि क्या होता है, उसने बहुतेरा धारणाएं बना रखी है, परंतु कुछ मी निश्चित नहीं है । इसे इसी तरह आगे बढ़ाते हुए, इस तरह आग्रह करते हुए मैं इस निष्कर्षपर आयी हू कि वास्तवमें मृत्यु जैसी कोई चीज है ही नहीं ।

 

   केवल एक आभास है, एक सीमित दृष्टिपर आधारित आभास, लेकिन चेतनाके स्पंदनमें कोई मौलिक फर्क नहीं पड़ता । यह एक प्रकारकी चिंताके उत्तरमें आया (कोषाणुओंमें सचमुच मृत्यु क्या है यह न जाननेके कारण एक चिंता-सी होती है--उस प्रकार चिंता), और: उत्तर: बहुत स्पष्ट और दृढ़तापूर्ण था, क्योंकि सिर्फ चेतना ही जान सकती है क्योंकि. स्थितिके अंतरको जो महत्व दिया गया है वह ऊपरी महत्व है जो स्वय तथ्यके बारेमें अज्ञानपर आधारित है । जो व्यक्ति संचारणका साधन बनाये रख सकें वह कह सकता है कि मेरे लिये इसमें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता । लेकिन दूसरी बात ऐसी है जिसपर अभी काम चल रहा है, ऐसे स्थान है जो बिलकुल यथार्थ नहीं हैं, अनुभूतिके कुछ ब्योरे है जो नहीं मिल रहे । इसलिये ऐसा लगता है कि जबतक ज्ञान अधिक पर्ण न हो जाय तबतक ठहरना ज्यादा अच्छा होगा । क्योंकि कल्पना-मिले अनुमानसे, कुछ कहने- की जगह समग्र अनुभूतिके साथ संपूर्ण तथ्य कहना ज्यादा अच्छा होगा । इसलिये इसे आगेके लिये स्थगित रखें।

 

   लेकिन आप कहती हैं कि कोई भेद नहीं.... जब व्यक्ति दूसरी तरफ होता है तो क्या वह भौतिक जगत् का बोध पा सकता है?

 

हां, हां, यह होता है ।

 

  उन सत्ताओंके बोध, उन...

 

हां, यह ऐसा ही है ।

 

  केवल बोध होनेकी जगह.. तुम एक म्रातिमूलक स्थितिसे, एक ऐसे बोधसे जो आभासोंका बोध है बाहर निकल आते हो, लेकिन तुम्हें एक बोध होता है; यानी, कुछ ऐसे क्षण थे जब मुझे बोध हुआ था, मैं अंतर

 

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देख सकती थी; लेकिन यह अनुभूति समग्र नहीं थी (इस अर्थमें समग्र नहीं थी कि बाह्य परिस्थितियों उसमें बाधा देती थीं) । इसलिये ज्यादा अच्छा यह है कि उसके बारेमें बोलनेसे पहले कुछ प्रतीक्षा की जाय ।

 

   लेकिन बोध तो है ।

 

  बिलकुल एक ही नहीं, लेकिन कमी-कभी अपने-आपमें अधिक समर्थ; लेकिन इसे सचमुच दूसरी ओरसे नहीं देखा गया था । मालूम नहीं इसे कैसे कहा जाय । मुझे एक उदाहरण मिला -- उदाहरण नहीं बल्कि जीती- जागती चीज, पूर्णबोध -- यह एक ऐसे आदमीके बारेमें है जो बरसों मेरे साथ रहा था, वह शरीरके बाहर जानेके बाद ( एकदम भौतिक रूपमें शरीरसे बाहर जानेके बाद) भी पूर्णतया सचेतन संपर्कमें रहा, वह विलीन हुए बिना, एक और जीवित व्यक्तिके साथ बहुत निकटके संपर्कमें था । हंस मेलमें वह स्वयं अपनी ही चेतनाका जीवन जीता रहा । और यह सब -- मैं नाम या तथ्य नहीं दें सकती, यह सब इतना ठोस था जितना हों सकता है । और यह जारी है ।

 

  यह सब देखा जा चुका है -- मैंने इसे बहुत पहले देखा था, लेकिन आज सवेरे ही यह नयी चेतनाके एक उदाहरणके रूपमें फिरसे आया । यह ( ' 'मेल'') अपने प्रभाव में असाधारण रूपसे ठोस था : दूसरेकी चेतनाकी क्षमताओं और गतियोंमें सचेतन रूपसे परिवर्तन ला सकता था, यह पूरी तरह सचेतन जीवन था । यह वही चेतना थी जो उस समय सचेतन थी जब शरीर बिलकुल न था और उसका अस्तित्व केवल रातको अंतर्दर्शनमें दिखायी देता था ।

और मी हैं ।

 

   यह बहुत निकट और घनिष्ठ है इसलिये मैं उसकी गतिविधिको पूरे विस्तारसे देख सकी ।

 

  लेकिन यह नयी दृष्टिके साथ ही स्पष्ट, यथार्थ और प्रत्यक्ष था । क्योंकि कैसे कहूं?... मैं जानती थी -- मैं इसे पहले जानती थी, मैं जानती थी -- केकिनी मैंने इसे फिरसे नयी चेतनाके साथ देखा; देखनेके नये तरीके- सें देखा, और तब पूरी तरह समझमें आ गया, पूरा-पूरा बोध हो गया, बिलकुल ठोस, जिसमें वे तत्व भी थे जो पूरी तरह गायब थे -- पहले बोधमें जो मानसिक और प्राणिक ज्ञान था । ये तत्व पूरा विश्वास कराने- वाले थे । यह कोषाणुओंकी चेतनाका ज्ञान था ।

 

   लेकिन यह सब तमी मजेदार होगा जब सभी तथ्य हों (जो नहीं दिये जा सकते) । अब मैं एक अधिक पूर्ण, अधिक ''निर्वैयक्तिक'' अनुभूति चाहती हू जिसे, यूँ कह लें, जिसे तटयोंद्वारा निर्देशित नहीं किया जाता,

 

जिसे प्रक्रियाकी समग्रताका अंतर्दर्शन हों । वह आयेगी ।

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